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न्याय के लिए किसके पास जाएं दलित?

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अच्छे दिन आने की उम्मीदों के बीच दिल्ली के जंतर-मंतर पर महीनों से अपनी इज्जत-आबरू, न्याय और अस्तित्व के लिए धरने पर बैठे कुछ लोग अपने सामने अंधेरे के सिवाय कुछ और नहीं देख पा रहे हैं।

23 मार्च 2014 को जब देश शहीद भगत सिंह की कुर्बानी को याद कर रहा था, हरियाणा के हिसार जिले के भगाणा गांव में दलित समुदाय की चार बच्चियों को एक दबंग जाति के लड़के जबरन कार में खींच ले गए। रुमाल सुंघाकर उन्हें बेहोश किया और फिर सामूहिक बलात्कार। बच्चियां भटिंडा रेलवे स्टेशन पर पड़ी मिलीं। लोग गांव के सरपंच के पास अपनी बेटियों के गायब होने की बात कहने पहुंचे तो उसने मामला दबाकर रखने को कहा। देश भर में घटित होने वाले ऐसे कई मामलों की तरह यह कांड भी रफा-दफा हो जाता, लेकिन उत्पीड़न के शिकार लोग इस बार पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।

टू फिंगर टेस्ट

इन्हें अपनी बच्चियों के लिए और अपने लिए इंसाफ चाहिए। फास्ट ट्रैक कोर्ट में न्याय, सभी दोषियों को सजा, पीड़ितों का पुनर्वास और सुरक्षा का स्थायी इंतजाम। क्या यह मांग बहुत ज्यादा है? जिस समाज में महिला होने भर से किसी को दोयम दर्जे का नागरिक मान लिया जाता हो, वहां दलित समूह की लड़कियों की परवाह किसे है? उनके साथ हुए रेप की पुष्टि के लिए टू फिंगर टेस्ट का सहारा लिया गया, जिसे नए बलात्कार विरोधी कानून के तहत बाकायदा प्रतिबंधित किया जा चुका है।

bhagana-rape.jpgप्रशासन की संवेदनहीनता की शिकायत पर जब हरियाणा सरकार ने ध्यान नहीं दिया तो हताशा में एक पीड़िता के चाचा ने जहर खाकर जान देने की कोशिश की। फिर भी, नतीजा वही ढाक के तीन पात। ध्यान रहे, दलितों पर अत्याचार को लेकर भगाणा कोई पहली बार चर्चा में नहीं है। दो साल पहले यहां के करीब 70 दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर उन्हें घर-बार छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया था। जो दलित तब वहां रह गए, वे लगातार शोषण के शिकार होते रहे। इस गैंगरेप के बाद उन्होंने भी बाहर निकलकर विरोध करने का फैसला किया है।

समझने की जरूरत है कि दलितों के प्रति अपराध कानून-व्यवस्था के सामान्य दायरे में आने वाली चीज नहीं है। यह जाति के दंभ में चूर एक समूह द्वारा दूसरे जाति समूह पर सोच-समझकर किया गया अत्याचार है। लालच, यौन कुंठा और गुंडागर्दी से ज्यादा इसके मूल में जातीय श्रेष्ठता की समझ काम करती है, जिसके लिए कानून और संविधान का महत्व जूते में लगी मिट्टी से ज्यादा नहीं है।

देखा यही गया है कि इस देश की सरकारें बदलती हैं, लेकिन वंचितों की नियति कभी नहीं बदलती। वह केवल अलग शक्ल अख्तियार कर लेती है। अभी देश ने जिन्हें अपना प्रधानमंत्री चुना है, वह नरेंद्र मोदी स्वयं पिछड़ी जाति से हैं। ऐसे में क्या भगाणा के दलितों को यह उम्मीद लगानी चाहिए कि नए प्रधानमंत्री समाज की सड़ांध को दूर करने की कोशिश भी उतनी ही तत्परता और गंभीरता से करेंगे, जितनी वह देश के सामने मौजूद दूसरे गंभीर मुद्दों को लेकर दिखाने का दावा कर रहे हैं? क्या जंतर-मंतर पर इसका असर दिखेगा?

भारतीय लोकतंत्र देश के वंचितों को सुरक्षित और सम्मानपूर्ण जीवन मुहैया कराने में सफल होता नहीं दिख रहा। संसदीय राजनीति वोट बैंक तक सिमट कर रह गई है। बीच में एक दौर ऐसा आया था जब लगा कि दलितों को उनका नेतृत्व मिल गया है। कांशीराम और मायावती सरीखे नेताओं ने अपने उदय के समय एक ऐसा माहौल बनाया कि दलितों की पीड़ा को सिर्फ दलित ही समझ सकता है, लिहाजा नेतृत्व के लिए उन्हें किसी और का मुंह देखने का जरूरत नहीं है।

इस राजनीति का प्रभाव यह हुआ कि अवसरवादी नेताओं में दलितों का वोट मिलने का भ्रम नहीं बचा, और सामाजिक न्याय के विचार के तहत दलित उत्पीड़न के विरुद्ध सक्रिय होने वाले बाकी प्रगतिशील नेता भी दलितों से काफी दूर हो गए। लेकिन इसका सबसे दुखदायी पक्ष यह रहा कि दलित अजेंडे की राजनीति करने वाले भी पिछले कुछ सालों में दलितों को अपनी जेब में पड़ी चीज मानकर खुद को सर्वजन का नेता साबित करने में जुट गए। नतीजा यह निकला कि अभी दलित समाज की तकलीफ में हिस्सेदारी करने कोई नहीं आता। उनकी समस्याएं, उनके सवाल, उनका दर्द, उनका विकास, उनकी शिक्षा, सम्मान, रोजी-रोटी, रोजगार सब कुछ पहले भी हाशिए पर था, लेकिन अब तो उन्हें हाशिए से भी बाहर मान लिया गया है।

अलग कर दीजिए

सवाल यह है कि ऐसे में दलित क्या करें। चुनाव के माहौल में पूरे देश में कई जगह और राजधानी के इर्दगिर्द कम से कम तीन जगह दलितों के खिलाफ जातीय उत्पीड़न की घटनाएं हुई हैं, लेकिन दलितवादी से लेकर हिंदुत्ववादी तक, कोई भी राजनेता इन जगहों पर झांकने भी नहीं गया। वंचितों के खिलाफ हो रहे अपराधों में यदि न्याय की उम्मीद बेमानी है, न राज्य सरकारों को उनकी कोई परवाह है, न केंद्र सरकार को, प्रशासन और तंत्र के लिए वे पहले से ही कोई मुद्दा नहीं हैं, तो फिर एक ही रास्ता बचता है। आप इन्हें रहने की कोई जगह दे दीजिए। एक अलग प्रदेश बना दीजिए, या कोई भी बाउंड्री खींचकर उसमें झोंक दीजिए। कम से कम जीवित तो रहेंगे। लौटकर आने पर काट दिए जाने का डर तो नहीं रहेगा।

 

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